122 - 122 - 122 - 122
ज़ुबाँ पर किसी के भी ताला नहीं है।
चलन ख़ामुशी का निराला नहीं है।
भरे थाल को 'डस्टबिन' में न फेंको,
मयस्सर किसी को निवाला नहीं है।
भला किस तरह छेद हो आसमाँ में,
किसी ने भी पत्थर उछाला नहीं है।
लरज़ती है धड़कन मेरा नाम सुनकर,
अभी दिल से मुझको निकाला नहीं है।
मैं तस्लीम अपने ही किरदार में हूँ,
अभी ख़ुद को साँचे में ढाला नहीं है।
ग़रीबी ने ओढ़ी है चादर अना की,
बदन पर किसी का दुशाला नहीं है।
छलावा है 'ख़ुरशीद' तेरा सवेरा,
हज़ारों घरों में उजाला नहीं है।
©'ख़ुरशीद' खैराड़ी जोधपुर।
तस्लीम -स्वीकार्य